देख के भी अंदेखा करना मुझे आता है, शायद अब सच से यही मेरा नाता है। सही गलत का फरक करना जानता हूँ, पर शायद, गलत को सही कहना ही, समझ मानता हूँ। दूसरों के नजरिये से दुनिया देखने की आदत सी लग गई है, शायद रोज खुद बिखरता देख,ये आँखें अब थक गई है। खामोशियों की दस्तक अब सुन नहीं पाता हूँ, शायद उस शोर मे कहीं गुम सा जाता हूँ। बोलना नहीं चीखना जानता हूँ, शायद इसी को अब साहस मानता हूँ। इंसानियत को तो अब बस किताबों मे पाता हूँ, शायद इस माया को खुद से ज्यादा चाहता हूँ। दिल के बोल अब दिल मे ही रहते है, शायद इसी को अब परिपक्वता कहते है। अंधविश्वास मे भी मेरा एक विश्वास है, शायद इस डूबते वजूद की यही एक आखिरी आश है। मरते ज़मीर का दर्द कर सहन लिया है, शायद मैंने भी दुनिया के इस नक़ाब को पहन लिया है। शायद मैंने भी दुनिया के इस नक़ाब को पहन लिया है।